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मोदी में 'इंदिरा' को देख एक बुलावे पर दौड़ पड़े तीखे बयान देने वाले कश्मीरी नेता?

नई दिल्ली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बुलावे पर जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक दलों का दिल्ली में बातचीत की टेबल पर चले आना कोई सामान्य घटना नहीं है। केंद्र सरकार और खासकर पीएम मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की जोड़ी के खिलाफ जिन राजनीतिक दलों और उनके नेताओं ने आग उगली हो, उनका बातचीत के लिए राजी हो जाना वाकई आश्चर्यजनक है। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि " ", " ", " " जैसे बयानों की बौछार करने वाली महबूबा मुफ्ती एक न्योते पर दिल्ली आएंगी? क्या यह हैरतअंगेज नहीं है कि जो फारूक अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के लिए लगा रहे थे, उन्होंने अपनी निगाहें नई दिल्ली की तरफ कर ली हैं? इंदिरा-शेख समझौते से जुड़े हैं आज की मीटिंग के तार! सवाल यह भी है कि क्या इन सवालों का जवाब पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और फारूक अब्दुल्ला के पिता शेख अब्दुल्ला के बीच हुए समझौते में पाया जा सकता है? आइए पहले जानते हैं कि इंदिरा और शेख के बीच कब, क्या समझौता हुआ था। बात 1975 की है जब इंदिरा गांधी के दूत जी पार्थसारथी और शेख अब्दुल्ला के प्रतिनिधि मिर्जा अफजल बेग ने एक समझौते पर दस्तखत किया और 17 साल बाद शेख जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बन पाए। शेख अब्दुल्ला भी 1953 से ही अपनी भारत विरोधी छवि बनाकर जम्मू-कश्मीर की जनता के बीच छा गए थे। वो दिल्ली पर आंखें तरेरते, उसे तरह-तरह के ताने देते, धौंस दिखाते, लेकिन जब 1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में इंदिरा ने पाकिस्तान को धूल चटा दी तो शेख के अकल ठिकाने आ गए। इंदिरा की आयरन लेडी की छवि ने शेख को अपनी भारत विरोधी छवि से निकलने पर मजबूर कर दिया। शेख समझ गए कि इंदिरा इतनी मजबूत हो गई हैं कि उनके सामने तोल-मोल रणनीति काम नहीं आने वाली, उल्टा नुकसान होने का खतरा ही है। स्वाभाविक था कि शेख ने इंदिरा के सामने झुकने का रास्ता चुना। जानकार कहते हैं कि 1975 का समझौता पूरी तरह नई दिल्ली की शर्तों पर हुआ था जो बिल्कुल एकतरफा था। अचानक महबूबा को मोदी में दिखने लगी आस जब किसी सवाल में किसी दूसरे सवाल का जवाब छिपा हो तो सवाल पूछा जाना चाहिए। इसलिए, यह सवाल जरूरी है कि क्या केंद्र-कश्मीर के बीच बने ताजा माहौल का सिरा कहीं 1975 से तो नहीं जुड़ा है? आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार भले ही कोविड-19 महामारी के लिए कुछ हद तक बैकफुट पर दिख रही हो, प. बंगाल में बीजेपी की हार के बाद भले ही विपक्ष की बांछें खिली हुई हों, लेकिन जहां तक बात कश्मीर और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी है, इन मोर्चों पर उनकी छवि अब भी बहुत मजबूत है। आर्टिकल 370 और 35ए के खात्मे और जम्मू-कश्मीर को दो टुकड़े करके उनसे पूर्ण राज्य का दर्जा खत्म करने की बात हो या फिर कश्मीरी नेताओं को हिरासत में रखने का मुद्दा, बेहद मुखर रहीं महबूबा को आज प्रधानमंत्री मोदी के दिल में जम्मू-कश्मीर के लिए उम्मीद की लौ जलती दिख रही है। वो पीएम की पहल से खुश हैं। उन्होंने कहा, "हम खुश हैं कि वो (प्रधानमंत्री मोदी) हमारी बातें सुनेंगे और हम आजादी से अपने विचार रख सकेंगे।" यूं बदल गया महबूबा का मन हालांकि, जब जम्मू-कश्मीर के नेताओं को पीएम के साथ बातचीत का न्योता मिलने पर महबूबा की अपेक्षित रुख के मुताबिक ही आई थी। महबूबा ने पीपल्स अलायंस फॉर गुपकर डेक्लेरेशन (PAGD) के अध्यक्ष और नैशनल कॉन्फ्रेंस के संरक्षक फारूक अब्दुल्ला से पीएजीडी का नेतृत्व करने को कहा। खुद पीएम के साथ मीटिंग करने को अनिच्छुक थीं, लेकिन फारूक ने जब पीडीपी अध्यक्ष और गुपकर गठबंधन की उपाध्यक्ष महबूबा मुफ्ती को समझाया कि चूंकि पीएम की तरफ से न्योता एक-एक नाम के साथ 14 लोगों को मिला है, न कि किसी पार्टी या गठबंधन को, तो एक गठबंधन के प्रतिनिधि के तौर पर उनका मीटिंग में शामिल होना, ठीक नहीं रहेगा और महबूबा को व्यक्तिगत रूप से मीटिंग में शामिल होना चाहिए। फिर महबूबा ने न केवल फारूक की बात मान ली बल्कि यह भी सफाई दी कि वो किसी भी मुद्दे पर सुलह-समझौते के लिए बातचीत के खिलाफ कभी नहीं रही हैं। यह अलग बात है कि वो अब भी पाकिस्तान से बातचीत पर जोर दे रही हैं। हालांकि, महबूबा की यह जिद्द अब कश्मीर घाटी के एक वर्ग को संदेश देने तक ही सीमित मानी जा रही है। फारूक की समझदारी और महबूबा का लचीलापन फारूक अब्दुल्ला की समझदारी भरी बातें और फिर महबूबा के रुख में आया लचीलापन मौजूदा हालात के प्रति सर्वोत्तम प्रतिक्रिया का प्रतीक है। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो फारूक-महबूबा हों या फिर जम्मू-कश्मीर के कोई और नेता, इनके पास बातचीत के सिवा कोई चारा नहीं बचा है। उनका कहना है कि मार्च 2022 में परिसीमन आयोग का कार्यकाल खत्म हो जाएगा और फिर जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव करवाया जाएगा। मछली जल के बिना रहे तो कैसे? एक विश्लेषक ने कहा, "मछली जल के बिना कैसे जिंदा रह पाएगी? चुनावों में भाग नहीं लेने का मतलब तो यही होगा कि इन नेताओं ने खुद अपनी अप्रासंगिकता स्वीकार कर ली है।" इस महत्वपूर्ण मीटिंग से जुड़ी गतिविधियों को करीब से परख रहे एक अन्य विश्लेषक ने कहा, "आपके नेता (मीटिंग के लिए बुलाए गए जम्मू-कश्मीर के नेता) हवा में अपने बाजू फड़काने को आजाद हैं, लेकिन सिर्फ उसी सीमा तक जहां से बॉस (केंद्र सरकार) की नाक शुरू होती है।" अतीत ने नाउम्मीद किया, अब नई आस बहरहाल, बीजेपी के सिवा जम्मू-कश्मीर के हर राजनीतिक दल प्रदेश को आर्टिकल 370 और पूर्ण राज्य का दर्जा वापस देने की मांग पर अड़े हैं। फारुक और महबूबा के अलावा आज की मीटिंग में कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद, पैंथर्स पार्टी के भीम सिंह, पीपल्स कॉन्फ्रेंस चीफ सज्जाद लोन, अपनी पार्टी चीफ सैयद अल्ताफ बुखारी, सीपीएम के एमवाई तारिगामी समेत कुल 14 नेता शामिल होंगे। केंद्र की तरफ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) में राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह मीटिंग में मौजूद रहेंगे। वैसे केंद्र की तरफ से जम्मू-कश्मीर को लेकर ऐसी पहल पहली बार नहीं हो रही है। पूर्व पीएम इंदिरा की 1975 की पहल से लेकर मौजूदा पीएम मोदी की 2017 में शुरू की गई कोशिश तक, जम्मू-कश्मीर के लिए रास्ता तलाशने का काम जारी है। अतीत के प्रयासों ने तो कुछ खास नतीजे नहीं दिए। उम्मीद, उम्मीद और उम्मीद ऐसे में निदा फाजली का वो शेर याद आता है- दुश्मनी लाख सही, खत्म न कीजे रिश्ता... दिल मिल न मिले, हाथ मिलाते रहिए... मौसम गर्म हो रहा है और कश्मीर की वादियों में जमी बर्फ अब पिघलने लगी हैं। कल तक दिल्ली को आंख दिखाने वाले नेता अब हाथ मिलाने आ रहे हैं। इस मुलाकात में दिल मिलते हैं या नहीं यह वक्त बताएगा। मगर, कश्मीर में बदलाव का एक नया अध्याय शुरू होने की उम्मीद जरूर जगी है।


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