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व्यापम घोटाले की जांच की इनसाइड स्टोरी, सीबीआई ने 155 केस और 45 संदेहास्पद मौतों के बीच इंटरपोल की मदद से पकड़े आरोपी

भोपाल छह साल, 155 केस, 45 संदेहास्पद मौतें, 3500 लोगों के खिलाफ चार्जशीट...किसी भी जांच एजेंसी के लिए ये आंकड़े दिमाग को उलझाने वाले हो सकते हैं, लेकिन कर रही सीबीआई के अधिकारियों की सबसे बड़ी उपलब्धि 18 लाख तस्वीरों में से 300 संदेहास्पदों की पहचान करना है। वो भी तब जबकि जांच एजेंसी के अधिकारी इनमें से किसी से बात नहीं कर सकते थे। जिन 308 लोगों की पहचान करनी थी, वे सभी मेडिकल छात्र थे। ये सभी उन प्रतियोगियों के बदले में एंट्रेंस परीक्षा में बैठे थे, जिन्हें अपने दम पर परीक्षा क्लियर करने की उम्मीद नहीं थी। इसके बदले उन्हें पैसे दिए गए थे। जुलाई, 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने व्यापम केस की जांच सीबीआई को सौंपी थी। सीबीआई ने मामले में 155 केस दर्ज किए थे। आज इनमें से एक भी केस लंबित नहीं हैं और जांच के लिए अलग-अलग जगहों से भोपाल भेजी गई अधिकारियों की टीम भी अब अपने मूल जगहों पर लौट चुकी है। यह घोटाला जितना अभूतपूर्व थी, उतनी ही इसकी जांच प्रक्रिया थी। जांच अधिकारियों को करीब 300 संदेहास्पदों की पहचान उन तस्वीरों से करनी थी, जो मॉर्फ किए गए थे। घोटालेबाजों ने असली प्रतियोगियों और उनकी जगह परीक्षा में बैठने वाले लोगों की तस्वीरों को मिला कर ये तस्वीरें बनाई थीं। एक अधिकारी ने बताया कि यह काम पेशेवर फोटो एडिटर्स की मदद से उत्तर प्रदेश में किया गया। घोटालेबाजों ने मॉर्फ्ड तस्वीरें तैयार करने में काफी सावधानी बरती थी। फोटो का ऊपरी हिस्सा असली प्रतियोगी का था। निचले हिस्से में उनकी जगह परीक्षा देने वाले की तस्वीर को मर्ज किया गया था। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि परीक्षा के दौरान फोटो के मिलान के लिए आम तौर पर निरीक्षक आंखों पर गौर करते हैं। ऐसा केवल उन मामलों में किया गया था जिनमें प्रतियोगी छात्र की जगह दूसरे को परीक्षा में बिठाया गया। घोटालेबाजों ने इसके लिए वैसे छात्रों को चुना था जिन्होंने प्रतियोगी परीक्षाओं में हाई स्कोर हासिल किए थे। इसके बदले उन्हें 10 हजार से पांच लाख रुपये तक दिए गए थे। घोटालेबाज गैंग की पहुंच इतनी मजबूत थी कि वे आसानी से एडमिट कार्ड के ऊपर मॉर्फ्ड तस्वीरें लगा देते थे और बाकी डिटेल्स वैसे ही रहने देते थे। तरीका कुछ ऐसा था कि सॉल्वर परीक्षा देता था, काउंसलिंग और वेरीफिकेशन के लिए कोई और आता और सब कुछ हो जाने के बाद असली प्रतियोगी एडमिशन के समय सामने आता। असली प्रतियोगियों से पूछताछ का कोई फायदा नहीं था क्योंकि उन्हें खुद ही रता नहीं था कि उनकी जगह परीक्षा में कौन बैठा था। घोटाले के मास्टरमाइंड भी उनकी पहचान बताने में सक्षम नहीं थे। सीबीआई ने य़ूआईडीएआई से मदद मांगी, लेकिन उसने भी कानून का हवाला देते हुए इनकार कर दिया। नए कानून के तहत केवल राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में ही आधार के बायोमीट्रिक डाटा के इस्तेमाल की अनुमति दी जा सकती है। सीबीआई ने इसके बाद सभी एग्जामिनेशन बोर्ड, मेडिकल कॉलेज और कोचिंग संस्थानों से छात्रों की तस्वीरें मंगानी शुरू की। 2007 से 2013 के बीच प्रीमेडिकल टेस्ट परीक्षाओं में शामिल होने वाले सभी छात्रों की डिटेल्स जुटाई गईं। डाटा जमा करना जितना मुश्किल था, उससे कहीं ज्यादा मुश्किल उनकी जांच करना था। सीबीआई के पास करीब 18 लाख तस्वीरें जमा हो गईं। इन्हें सरकारी लैब्स में भेजा गया, लेकिन किसी के पास ऐसा सॉफ्टवेयर या विशेषज्ञता नहीं थी कि इनमें से आरोपियों की पहचान कर सके। सीबीआई ने हर आरोपी की पहचान के लिए 10 हजार रुपये इनाम की भी घोषणा की, लेकिन कोई आगे नहीं आया। जांच एजेंसी ने एक प्राइवेट लैब से संपर्क किया। उसने हर आरोपी की पहचान के लिए दो लाख रुपये मांगे। सीबीआई को 200 आरोपियों की पहचान के लिए छह करोड़ रुपये देने पड़ते। सीबीआई ने कोई उपाय नहीं देख इंटरपोल से मदद मांगी। सभी तीन लाख तस्वीरें इंटरपोल को भेजी गईं। एफबीआई के फेस रिकॉग्निशन सॉफ्टवेयर की मदद से करीब 250 आरोपियों की पहचान हुई। थोड़ी मदद हैदराबाद पुलिस ने भी की। हैदराबाद पुलिस ने स्ट्रीट क्रिमिनल्स की पहचान के लिए एक सॉफ्टवेयर तैयार किया है। इसके जरिए भी करीब 30 आरोपियों की पहचान हुई। सीबीआई के हाथों में जांच आने के छह साल बाद 298 आरोपी गिरफ्तार हो चुके हैं। केवल 10 ऐसे हैं जो अब वॉन्टेड हैं।


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