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लेख: इंसानियत, जम्हूरियत.... तो क्या कश्मीर पर अटल से बेहतर है मोदी का रास्ता?

नई दिल्ली भाजपा के संस्थापक और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कश्मीर के लिए एक सिद्धांत की बात की थी- इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत। पूर्व पीएम तीन स्तंभों की बातें करते थे जो उनकी कश्मीर नीति को परिभाषित करते थे। ये था मानवता, लोकतंत्र और समन्वयवाद। वाजपेयी की बातें सभी को समझ में आती थीं और उनके शब्दों को बाद की सरकारों ने भी दोहराया। लेकिन तब से अब तक झेलम में काफी पानी बह चुका है, अक्सर पानी का रंग खूनी गुलाबी होता रहा। नोवेलिस्ट अश्विन सांघी ने हमारे सहयोगी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में एक लेख लिखा है और वाजपेयी के समय से लेकर मोदी सरकार की कश्मीर रणनीति की समीक्षा की है। आइए जानते हैं। सांघी लिखते हैं कि वाजपेयी के सिद्धांत और लाहौर बस यात्रा के जरिए व्यक्त की गई उदारता की भावना का जवाब करगिल युद्ध, IC-814 हाइजैक और भारत की संसद पर हमले के रूप में मिला। आगे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की श्रीनगर-मुजफ्फराबाद बस सेवा का जवाब 26/11 के रूप में मिला। यह सिलसिला आगे भी रुकने वाला नहीं था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अचानक लाहौर में उतरते हैं और 2015 में नवाज शरीफ से मिलते हैं लेकिन उसके बाद उरी, पठानकोट और पुलवामा होता है। ऐसे में, क्या हमें खुद से नहीं पूछना चाहिए कि क्या वाजपेयी का सिद्धांत व्यावहारिक से ज्यादा आदर्शवादी था? वाजपेयी नीति के तीन हिस्से वाजपेयी की कश्मीर नीति के तीन हिस्सों में से पहला समझते हैं- इंसानियत या मानवता। Humanity शब्द लैटिन 'Humanitas' से आया है जिसका मतलब होता है मानवीय प्रकृति और दया। लेकिन लंबे समय से क्षेत्र में इंसानियत नदारद है। एक अनुमान के मुताबिक 1989 से 2002 तक आतंकवाद ने करीब 40,000 लोगों की जान ले ली। 2000 से 2020 तक दो दशकों में 21,813 लोगों की जान गई है। इसमें 4,879 आम नागरिक, 3519 सुरक्षाकर्मी, 12997 आतंकी और 418 अन्य शामिल थे। हर एक मौतों के पीछे भयावहता छिपी है। 1990 में अशोक कुमार काजी नाम के कश्मीरी पंडित को गोली मार दी गई। लेकिन उनकी मौत से पहले घिनौनी हरकत भी की गई। उनके घुटनों को तोड़ दिया गया, उनके बाल काट दिए गए और उनके शव पर पेशाब किया गया। 2017 में पुलिस अधिकारी मोहम्मद अयूब पंडित को जामा मस्जिद के बाहर 200 लोगों की भीड़ ने मार डाला। उसके कपड़े उतार कर नंगा कर दिया गया और पत्थर व लोहे की रॉड से पीटा गया। उनका शरीर क्षत-विक्षत अवस्था में मिला। इस विक्षिप्तता में इंसानियत कहां है? जम्हूरियत कहां तक है? दूसरे स्तंभ की बात करते हैं- जम्हूरियत। यह ओटोमन तुर्की शब्द Cumhuriyat से आया है। इसका मतलब रिपब्लिक या लोकतंत्र होता है। कुछ लोग हैं जो सिलेक्टिव तरीके से भारत को जनमत संग्रह के अपने कमिटमेंट की याद दिलाते रहते हैं लेकिन वे संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव 47 का जिक्र करना भूल जाते हैं कि पाकिस्तान को बिना शर्त अपने सभी नागरिकों को वापस बुला लेना चाहिए जो कभी नहीं हुआ। जो राजनेता आर्टिकल 370 खत्म करने और राज्य को केंद्रशासित प्रदेश में बदलने को लोकतंत्र की हत्या कहते हैं वे जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में धांधली भूल जाते हैं। 1987 के चुनावों में धांधली की वे बात नहीं करते, वे भूल जाते हैं कि 1977 के चुनावों को छोड़कर 1951 से 1983 के बीच लोकतंत्र की हत्या आम बात थी। वाल्मिकी समुदाय का दर्द याद है! यह भी याद रखना चाहिए कि आर्टिकल 370 खत्म होने से पहले तक वाल्मीकि समुदाय का जीवन केवल सफाई करने में बीत रहा था, उनके लिए स्थायी रूप से रहने का अधिकार, वोट करने का अधिकार, उच्च शिक्षा तक पहुंच और सरकारी नौकरियों में जगह नहीं थी। क्या वाल्मीकि जम्हूरियत में नहीं आते? कश्मीरियत किसे कहते हैं? अब बात कश्मीरियत की, जो क्षेत्र के सांप्रदायिक सौहार्द्र और धार्मिक एकजुटता की परंपरा को व्यक्त करता है। लेकिन कुछ हफ्ते ही हुए हैं, जब श्रीनगर के सम्मानित केमिस्ट माखन लाल बिंद्रो की आतंकियों ने हत्या कर दी। इसके बाद स्कूल प्रिंसिपल सुपिंदर कौर और एक बिहारी ठेले लगाने वाले वीरेंद्र पासवान और एक स्कूल टीचर दीपक चंद की हत्या कर दी गई। ये हत्याएं 1990 के दशक से लगातार हो रही हैं। 90 के दशक में हत्याओं के कारण ही कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़नी पड़ी। उस समय अखबारों में विज्ञापन निकल रहे थे कि कश्मीरी पंडित समुदाय घाटी छोड़ दे, पोस्टर लग रहे थे कि हिंदू इस्लाम कबूल लें और अलगाववाद के रास्ते में शामिल हो जाएं। ऐसे में सवाल है कि जब कश्मीरी पंडितों को घर छोड़ने की मस्जिदों से धमकियां दी जा रही थीं तब कश्मीरियत कहां चली गई थी? अगर इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत शांति का आधार नहीं बन सकता तो क्या होना चाहिए? ऐसे में ऊर्दू के तीन नए शब्द आते हैं-मईशत, हिफाजत और आबादियात - अर्थव्यवस्था, सुरक्षा और जनसांख्यिकी। आर्थिक खुशहाली पैदा की जाए और रोजगार बढ़े, आंतरिक और वाह्य सुरक्षा पर फोकस हो और देश के दूसरे हिस्सों से यहां माइग्रेशन के लिए प्रोत्साहित किया जाए। ऐसे में, यह देखा जाना चाहिए कि धीरे-धीरे ही सही मोदी सरकार यही तो कर रही है?


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