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ब्लॉगः महामारी की सीख, हेल्थ केयर मॉडल ऐसा हो जो बीमार ही न होने दे

अगर आप समझते हैं कि मनुष्यता को अगली महामारी से बचाने वाली स्वास्थ्य क्षेत्र में हुई उन्नति को अमीरों की दुनिया के अच्छे इरादों, तकनीकी जानकारों या धंधा-धुरंधरों के भरोसे छोड़कर निश्चिंत हुआ जा सकता है, तो इसका मतलब है कि आपको परियों की कहानी पर यकीन है। सचाई यह है कि भारत पर दुनिया, खासकर विकासशील देशों को स्वास्थ्य की देखभाल के लिए तैयार करने की विशेष जिम्मेदारी है। दो ऐसे विशिष्ट क्षेत्र हैं, जिनमें भारतीय कंपनियां और सरकारी एजेंसियां छाप छोड़ सकती हैं। पहला है जैव प्रौद्यौगिकी और जीनोमिक मेडिसिन। दूसरा, बॉडी सेंसर या इस तरह की दूसरी डिवाइसेज पहनने वालों से मिलने वाले डेटा के उपयोग का।

मगर पहले तो यह सवाल उठता है कि आखिर यह भारत की ही जिम्मेदारी क्यों है कि वह तकनीक के इन सारे वादों को पूरा करे? वजहें कई हैं। भारत में ऐसे लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है, जिन्हें विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग और मैथ्स में प्रशिक्षित किया जा सकता है। भारतीय दुनिया के सबसे अच्छे बायोटेक्नॉलजी लैब्स या दवा कंपनियों में काम करते हैं। भारत में रिसर्च और डिवेलपमेंट की लागत विकसित देशों के मुकाबले बहुत कम है। भारतीय प्रॉब्लम्स को सॉल्व करने में भी सबसे अच्छे हैं।

कोरोना का एक परिणाम यह भी हुआ है कि वायरस के अध्ययन में नई रुचि जगी है। आम तौर पर लोग मानते हैं कि सारे वायरस घातक होते हैं और बेवजह नुकसान पहुंचाते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। वैज्ञानिक जानते हैं कि कुछ वायरस बैक्टीरिया को खा जाते हैं। बैक्टीरियाखोर इन वायरसों का प्रयोग मल्टी ड्रग रेसिस्टेंट बैक्टीरिया को मारने में हो सकता है। जब तक एंटीबायोटिक या पेनिसिलिन नहीं आई थी, बैक्टीरियाखोर वायरसों पर खूब रिसर्च होती थी। जब एंटीबायोटिक्स आ गईं, तब सबका ध्यान नई दवाएं खोजने में लग गया। लेकिन अब नई एंटीबायोटिक दवाओं को खोजना मुश्किल हो गया है, इसलिए बैक्टीरियाखोर वायरसों में लोगों की रुचि फिर से बढ़ी है।

सिंथेटिक बायॉलजी को आगे बढ़ाने में भारत आदर्श स्थिति में है। यहां मैनपावर है, बायोडायवर्सिटी है और जानवर, इंसान या पौधों के जैविक सिस्टम में हस्तक्षेप करने वाला हर तरह का मौसम है। अब यह केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है कि वह इस बारे में सही नियम-कायदे के साथ आए, ताकि इसमें नैतिक मानक बनाए जा सकें। जीन एडिटिंग से ऐसी चुनौतियां सामने आ सकती हैं जिनसे निपटना मेडिसिन या बायोकेमिस्ट्री के जानकारों के लिए मुश्किल हो जाए। नैतिकता और कानून की बारीकियां समझने वालों को उनकी मदद के लिए आगे आना होगा। उसके बाद, विश्वविद्यालयों, राज्य सरकारों और इंडस्ट्री की जिम्मेदारी होगी कि वे स्टार्टअप्स को शुरू करने और आगे बढ़ने में मदद करें।

हर स्मार्टफोन अपने मालिक का उठाया एक-एक कदम गिनता है। स्मार्ट बैंड और घड़ियां ब्लड प्रेशर, ब्लड फ्लो, तापमान, नींद का पैटर्न, धड़कनों की नियमितता और खून में ऑक्सिजन का स्तर भी नापती हैं। पहनने वाली इन मशीनों का डेटा बहुत काम का होता है। लेकिन इस डेटा का उपयोग हो, इसके लिए हमें थोड़े अलग तरह का हेल्थ सिस्टम चाहिए। हमारे पास जो हेल्थ सर्विस सिस्टम है, वह पैसा बीमारों के इलाज से बनाता है। अगर ऐसा हो जाए कि अधिक से अधिक लोग स्वस्थ रहें तो उसकी कमाई कम हो जाएगी और धीरे-धीरे धंधा बंद हो जाएगा।

समझना जरूरी है कि समस्या हेल्थकेयर प्रोवाइडर्स के साथ नहीं, बल्कि इस धंधे के मॉडल में है। मॉडल ऐसा होना चाहिए, जिसमें सर्विस प्रोवाइडर को लोगों के स्वस्थ रहने पर या स्वस्थ रखने की कोशिशों के बावजूद बीमार होने की दशा में उनका इलाज करने पर पैसे मिलें, ना कि सीधे बीमार होने पर इलाज करने की एवज में। देखभाल की सुविधा देने वाले ये लोग हमेशा पहनी जाने वाली डिवाइसेस से डेटा इकट्ठा करेंगे और वक्त पर उनका उपयोग करेंगे।

कायदे से तो सरकार और प्राइवेट सर्विस प्रोवाइडर्स, दोनों को यह काम हाथ में लेना चाहिए। भारत में केरल और तमिलनाडु ये दो राज्य ऐसे मॉडल को आजमाने के लिए शायद सबसे अच्छी हालत में हैं। उनकी साक्षरता दर ऊंची है, लोकतांत्रिक एजेंसी बेहतर हालत में है और सरकारी मशीनरी काम करती है।

लेखकः टीके अरुण

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं


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