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विशुद्ध राजनीतिः क्या LJP में बंटवारा नीतीश कुमार ने करवाया?

क्या करेंगे चिराग में बंटवारे के बाद का जो घटनाक्रम रहा है, उसमें के अलग-थलग पड़ जाने की बात हो रही है। राजनीतिक गलियारों में यह भी कहा जा रहा है कि यह बंटवारा ने करवाया क्योंकि चिराग के साथ उनके रिश्ते कभी सहज नहीं रहे। रामविलास पासवान के जीवनकाल में भी नीतीश ने कभी चिराग को तवज्जो नहीं दी, यहां तक कि पार्टी का अध्यक्ष पद संभालने के बाद भी नहीं। स्वाभाविक ही चिराग के मन में भी नीतीश के प्रति नाराजगी बढ़ती रही। विधानसभा चुनाव में चिराग का नीतीश कुमार को लेकर जो रुख रहा है, उसके बाद तो यह तय ही हो गया था कि चिराग के लिए आने वाले दिन कठिनाई भरे हो सकते हैं। विधानसभा चुनाव के नतीजों ने चिराग को और कमजोर कर दिया और उसके बाद का जो घटनाक्रम रहा, वह बताने की जरूरत नहीं। अब आरजेडी की कोशिश चिराग को अपने साथ लेने की है, लेकिन विधानसभा के चुनाव में अभी काफी वक्त है। ऐसे में राज्य स्तर के गठबंधन में चिराग अभी अपनी कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं, उनकी कोशिश केंद्रीय राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने की है। उनकी कोशिश एनडीए में अपनी वापसी को लेकर है। चर्चा है कि वह बीजेपी को संदेश भिजवा चुके हैं कि राज्य में उनका जेडीयू से भले ही दुराव हो, लेकिन बीजेपी से कोई मतभेद नहीं है। इसी के जरिए वह पिता के स्थान पर केंद्रीय कैबिनेट में वापसी भी चाहते हैं। एनडीए में अगर उनकी वापसी होती है तो यह कोई चौंकाने वाली बात नहीं होगी क्योंकि बीजेपी के अंदर नीतीश कुमार की पसंद-नापसंद को बहुत ज्यादा तवज्जो न दिए जाने की बात हो रही है। क्यों शुरू हुई लड़ाई? कर्नाटक में अभी विधानसभा चुनाव में दो साल बाकी हैं। वहां बीजेपी के अंदर तो काफी पहले से मुख्यमंत्री बदलने को लेकर खींचतान चल ही रही है, मजे की बात यह है कि कांग्रेस में भी अगले चुनाव के लिए सीएम का चेहरा तय करने की मांग पर झगड़ा शुरू हो गया है। सीएम रह चुके सिद्धाररमैया चाहते हैं कि आलाकमान उनके नाम पर मुहर लगाए। 2018 का चुनाव पार्टी ने उन्हीं के चेहरे पर लड़ा था, वह उस वक्त राज्य के मुख्यमंत्री भी थे, लेकिन उनके नाम का विरोध डीके शिवकुमार गुट कर रहा है। शिवकुमार इस वक्त कर्नाटक राज्य इकाई के अध्यक्ष हैं। उनके लोग यह तर्क दे रहे हैं कि जो प्रदेश अध्यक्ष होता है, उसी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की परंपरा है। इस लिहाज से शिवकुमार को ही मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाना चाहिए। उधर, एक पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष हैं- जी परमेश्वर। वह पार्टी का दलित चेहरा होने के नाते सीएम पद के लिए अपना दावा पेश कर चुके हैं। इन तीन बड़े नामों के अलावा तीन अन्य नाम भी हैं, जो सीएम पद की रेस में शामिल होना चाहते हैं। लेकिन सवाल तो यह है कि जब चुनाव के दो साल बाकी हैं तो झगड़ा अभी से क्यों शुरू हो गया। इस सवाल पर प्रदेश कांग्रेस के एक नेता की यह टिप्पणी काफी दिलचस्प रही, 'दरअसल हमारे यहां देर से सुना जाता है, इसलिए यह लड़ाई अभी से शुरू हो गई ताकि चुनाव आते-आते कोई फैसला हो सके।' चार अनार, 12 बीमार पुरानी कहावत है- एक अनार, सौ बीमार। मध्य प्रदेश की राजनीति के नजरिये से इसे बदल कर कहा जा सकता है- चार अनार, 12 बीमार। वजह यह है कि इस वक्त राज्य में चार मंत्री पद खाली हैं, लेकिन उन्हें भरा इसलिए नहीं जा पा रहा है कि उसके दावेदार एक दर्जन विधायक हैं। शिवराज चौहान चाह कर भी अपने मंत्रिमंडल का विस्तार नहीं कर पा रहे। अगर बात सिर्फ बीजेपी की होती तो भी वह मंत्रिमंडल विस्तार का जोखिम ले सकते थे क्योंकि नाराजगी घर के अंदर की बात होती। जो नाराजगी दिखाता उससे सीधे-सीधे आलाकमान निपट लेता, लेकिन मध्य प्रदेश बीजेपी की पॉलिटिक्स में ज्योतिरादित्य सिंधिया फैक्टर बहुत अहम बना हुआ है। राज्य में पार्टी और सरकार कोई भी ऐसा फैसला नहीं लेना चाहती, जिससे सिंधिया की नाराजगी का खतरा बढ़ जाए। सिंधिया तकनीकी रूप से तो बीजेपी का हिस्सा हो ही चुके हैं, उन्हें 'वीटो पावर' भी मिली हुई है। साथ ही शिवराज चौहान के खिलाफ पार्टी के अंदर होने वाली गोलबंदी में भी वह मुख्यमंत्री के लिए कवच का काम करते हैं। ऐसे में चौहान भी सिंधिया को अतिरिक्त तवज्जो देते हैं। कैबिनेट में जो चार पद खाली हैं, उन पर मूल बीजेपी के विधायकों की नजर तो है ही, साथ ही सिंधिया समर्थक विधायक भी अपनी दावेदारी बनाए हुए हैं। चौहान के लिए यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि दर्जन भर दावेदारों में से चार कैसे चुनें। इस वजह से वह जितना टाल पा रहे हैं, टाल रहे हैं लेकिन खाली मंत्रिपद देखकर विधायकों को कहां चैन आने वाला। उनका सीएम पर दबाव बढ़ता ही जा रहा है। देखने वाली बात होगी कि चौहान कैसे इस दबाव से बाहर आते हैं और वे चार लोग कौन होते हैं, जिन्हें मंत्री पद से नवाजा जा सकता है। विंसेंट की वापसी से सुकून दिल्ली में कांग्रेस का जो सबसे ताकतवर दरबार कहा जाता है, उसमें की वापसी की चर्चा है। विंसेंट एक वक्त गांधी परिवार के बेहद करीबी माने जाते थे, लेकिन पनडुब्बी घोटाले में नाम आने के बाद से गांधी परिवार ने उनसे दूरी बना ली थी। हालांकि, बीते दिनों पंजाब संकट के दौरान उन्हें मध्यस्थता करते देखा गया। कैप्टन और सिद्धू के बीच चल रहे 'युद्ध' में फिलहाल जो विराम दिख रहा है, वह जॉर्ज के ही प्रयासों का नतीजा माना जा रहा है। पंजाब के साथ-साथ उन्हें राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच भी सुलह कराने का टास्क सौंपा गया है क्योंकि तमाम प्रयासों के बावजूद गहलोत और पायलट के बीच सुलह की कोई गुंजाइश नहीं बन पा रही है। अभी तक जितने भी लोगों को यह जिम्मा दिया गया है, उन्हें नाकामी ही हाथ लगी है। जॉर्ज इस टास्क में कितना कामयाब होते हैं, यह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन उनकी दिल्ली दरबार में वापसी से सबसे ज्यादा सुकून जिन्हें महसूस हो रहा होगा, वह कमलनाथ हो सकते हैं। दरअसल, इधर एक सीनियर और गांधी परिवार के भरोसेमंद शख्स की दिल्ली दरबार में मांग बढ़ गई थी। इसके लिए कमलनाथ ही सबसे उपयुक्त माने जा रहे थे, लेकिन वह किसी भी कीमत पर मध्य प्रदेश छोड़ने को तैयार नहीं थे। उन्हें लगता है कि मध्य प्रदेश छोड़ने का मतलब होगा मुख्यमंत्री पद का दावा छोड़ना। सिंधिया के बीजेपी में चले जाने के बाद भी कमलनाथ अपने लिए मध्य प्रदेश में मुश्किल कम होते नहीं देख रहे। उन्हें अपने बेटे को भी राज्य की राजनीति में स्थापित करना है।


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