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ग़ुरूर की धूप में

ग़ुरूर की धूप में

ग़ुरूर की धूप में जब ख़ाक-सी छा गई

तमन्ना की ठंडी हवा फिर से आ गई

तामीर-ए-दिल में थे फ़ज़ाइल के गुंचे सभी

मगर शक की सर्द हवा सबको डरा गई

ग़ैरत का तख़्त भी गिरते हुए देखा यहाँ

आरज़ू की लपट से हया भी जला गई

नवाज़िश-ए-रब ने दिखाया खुला आसमान

एक ख़्वाब की किरन हक़ के संग आ गई

क़यामत की तारीख़ लिखी न कभी यहाँ

ख़ामोशी की आख़िरी सदा फिर से आ गई

'राहत' की सोच भी ग़ैर-मामूली थी यहाँ

दुआ से दिलों में नई रौशनी आ गई


"राहत टीकमगढ़"